समजावले मनाला
माझ्या कितीतरी मी
हे पाहणे तुजकडे
नाही बरे रे नेहमी..
का ऐकते न मन हे
सांगीतले जरी मी
वळुनी पुन्हापुन्हा का
बघते तुलाच नेहमी..
गर्दी बघून तिकडे
रुसतो मनी इथे मी
एकांत पाहुनीया
हसतो खुषीत नेहमी..
नजरानजर अचानक
होतोच बावरा मी
त्रेधा उडे कशी मग
अवघड स्थितीत नेहमी..
.
प्रतिक्रिया
18 Mar 2016 - 8:17 pm | अत्रुप्त आत्मा
व्वाह! झकास कि हो.
19 Mar 2016 - 12:38 am | भरत्_पलुसकर
लय भारी
19 Mar 2016 - 12:41 am | अभ्या..
मस्तच हो.
19 Mar 2016 - 11:58 am | रातराणी
कविता आवडली! आन्खोकी गुस्ताखीया माफ हो आठवलं!
21 Mar 2016 - 7:20 am | विदेश
आत्मबंध , भरत_पलुसकर , अभ्या.. , रातराणी ....
प्रतिसादाबद्दल धन्यवाद !
21 Mar 2016 - 7:55 pm | विवेकपटाईत
कविता आवडली
हे पाहणे तुजकडे
नाही बरे रे नेहमी..
पुढे काय झाले .....
22 Mar 2016 - 6:01 am | विदेश
विवेकपटाईत -
नंतरच्या दोन ओळीत उत्तर आहे.
प्रतिसादाबद्दल धन्यवाद.
22 Mar 2016 - 7:07 am | एक एकटा एकटाच
मस्त
23 Mar 2016 - 4:11 pm | विदेश
एक एकटा एकटाच -
प्रतिसादाबद्दल धन्यवाद !
23 Mar 2016 - 5:08 pm | पैसा
सुरेख कविता!
26 Mar 2016 - 3:25 pm | विदेश
पैसा -
प्रतीसाठी आभार !
26 Mar 2016 - 3:27 pm | विदेश
प्रतिसादासाठी आभार !