हाकेसरशी धावून येणं
सदैव पाठीशी असणं
काहीच पुरेसं नव्हतं
मान्य
तुझ्या आर्त मूक हाका
ऐकू आल्या नाहीत
खोट्या हास्यामागचं
वेदनांनी होरपळलेलं मन
दिसू शकलं नाही
मान्य
तरीही इतकं सारं बिघडण्याआधी
स्वतःहून साद घालणं
फार कठीण होतं का?
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पूर्वप्रकाशितः
http://mandarvichar.blogspot.in/2015/10/blog-post_31.html
अश्विन कृ. ५, शालीवाहन शके १९३७
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प्रतिक्रिया
31 Oct 2015 - 9:47 pm | मांत्रिक
वाह! आवडली!!!
1 Nov 2015 - 9:41 am | मोगा
काव्यगुरु बेफिकिरना दाखवा.
1 Nov 2015 - 10:54 am | दमामि
वा!!!!
1 Nov 2015 - 10:59 am | सत्याचे प्रयोग
आवडेश
1 Nov 2015 - 10:39 am | इडली डोसा
आणि नक्की काय घडलं असावं या कवितेमागे याचा थोडाफार अंदाजही आला.
1 Nov 2015 - 12:24 pm | बिन्नी
कविता आवडली
1 Nov 2015 - 12:36 pm | एस
फारच सूचक!
1 Nov 2015 - 12:47 pm | बाबा योगिराज
आवड्यास...
1 Nov 2015 - 4:36 pm | पैसा
सुरेख!
1 Nov 2015 - 10:05 pm | मंदार दिलीप जोशी
सर्वांना धन्यवाद.
इडली डोसा, विशेष धन्यवाद :)
1 Nov 2015 - 10:43 pm | अनिरुद्ध.वैद्य
मंदार,
मस्त जमलीय. हाक कधी कधी मारली जातच नाही. कम्युनिकेशनच्या अभावाने लैच गोंधळ होतो :)
3 Nov 2015 - 5:44 pm | शिव कन्या
हेच म्हणायचे होते.