डोह काळा डोक्यावरी अन् ,
तारकाही भरजरी..
एक चन्द्र वाहता अन्
एक होड़ी धावती.
हिरे माणिक तरंगते,
जणू लक्ष दिव्यांच्या मैफिली,
कुजबुज त्यांची मोकळी..
'ति' राहिली ना आपली.
निखळले कमजोर तारे,
दोष देऊनि मला...
मी मूक राहून पळभरी,
श्रद्धांजलि त्यांस वाहिली.
लोटुनी गुंबज मनोहर,
तिज पापण्या मग श्रांतल्या..
भिस्त मजवर टाकुन सारी,
ती 'रातराणी' झोपली.
प्रतिक्रिया
24 Apr 2015 - 10:41 am | प्राची अश्विनी
सुंदर! आवडली!
24 Apr 2015 - 1:54 pm | पैसा
सुरेख कविता!
24 Apr 2015 - 2:11 pm | कविता१९७८
मस्त
24 Apr 2015 - 3:58 pm | एक एकटा एकटाच
फार सुंदर रचलीय.
26 Apr 2015 - 9:27 am | विवेकपटाईत
आवडली
26 Apr 2015 - 5:54 pm | एक एकटा एकटाच
.
26 Apr 2015 - 7:43 pm | Vimodak
मित्रहो..धन्यवाद : )
26 Apr 2015 - 8:40 pm | एक एकटा एकटाच
पुढिल लेखणास शुभेच्छा
27 Apr 2015 - 6:40 pm | मिसळलेला काव्यप्रेमी
सुरेख!