युवराज पाटिलांचा संवेदना http://www.misalpav.com/node/22875 हा लेख वाचला . आणि फाळनिच्या
दुखद आठवनीं वर आधारीत मुनव्वर राणा यांची मुहाजिर नामा ही गझल आठवली. मी मागे स्वतच्या धाग्यात
टाकली होती http://www.misalpav.com/node/11661 . तेव्हा मला या गझल चे फारच थोडे शेर माहीत होते
नंतर कळलं की ही दिर्घ गझल ८०० शेर मिळुन बनली आहे . तर यातीलच काही नविन शेर इथे शेअर करत आहे
सोबतच नविन सभासदां साठी जुने शेर जोडुन देत आहे .
मुहाजिर हैं मगर हम एक दुनिया छोड़ आए हैं ! ( मुहाजिर = निर्वासीत )
तुम्हारे पास जितना है हम उतना छोड़ आए हैं !!
कहानी का ये हिस्सा आजतक सब से छुपाया है !
कि हम मिट्टी की ख़ातिर अपना सोना छोड़ आए हैं!!
नई दुनिया बसा लेने की इक कमज़ोर चाहत में !
पुराने घर की दहलीज़ों को सूना छोड़ आए हैं !!
अक़ीदत से कलाई पर जो इक बच्ची ने बाँधी थी ! ( अक़ीदत = विश्वास )
वो राखी छोड़ आए हैं वो रिश्ता छोड़ आए हैं !!
किसी की आरज़ू ने पाँवों में ज़ंजीर डाली थी ! ( आरज़ू = इच्छा )
किसी की ऊन की तीली में फंदा छोड़ आए हैं!! ( ऊन की तीली = लोकर विनायची काडी / फंदा= टोक, छेडा )
पकाकर रोटियाँ रखती थी माँ जिसमें सलीक़े से! ( सलीक़े से= पद्ध्तशीर )
निकलते वक़्त वो रोटी की डलिया छोड़ आए हैं!! (डलिया = टोपली )
जो इक पतली सड़क उन्नाव से मोहान जाती है! ( उन्नाव, मोहान = यु.पी. मधील गाव )
वहीं हसरत के ख़्वाबों को भटकता छोड़ आए हैं!! ( हसरत = इच्छा )
यक़ीं आता नहीं, लगता है कच्ची नींद में शायद!
हम अपना घर गली अपना मोहल्ला छोड़ आए हैं!!
हमारे लौट आने की दुआएँ करता रहता है !
हम अपनी छत पे जो चिड़ियों का जत्था छोड़ आए हैं!!
हमें हिजरत की इस अन्धी गुफ़ा में याद आता है! (हिजरत= स्थलांतर )
अजन्ता छोड़ आए हैं एलोरा छोड़ आए हैं!!
सभी त्योहार मिलजुल कर मनाते थे वहाँ जब थे!
दिवाली छोड़ आए हैं दशहरा छोड़ आए हैं!!
हमें सूरज की किरनें इस लिए तक़लीफ़ देती हैं!
अवध की शाम काशी का सवेरा छोड़ आए हैं!!
गले मिलती हुई नदियाँ गले मिलते हुए मज़हब! (मज़हब = धर्म)
इलाहाबाद में कैसा नज़ारा छोड़ आए हैं!!
हम अपने साथ तस्वीरें तो ले आए हैं शादी की !
किसी शायर ने लिक्खा था जो सेहरा छोड़ आए हैं!! (सेहरा = लग्नात गायचे स्तुतीपर गीत)
मुनव्वर राणा .
नविन शेर
कई आँखें अभी तक ये शिकायत करती रहती हैं,
के हम बहते हुए काजल का दरिया छोड़ आए हैं ।
शकर इस जिस्म से खिलवाड़ करना कैसे छोड़ेगी, ( शायर मुनव्वर यांना मधुमेह आहे )
के हम जामुन के पेड़ों को अकेला छोड़ आए हैं । ( आणि जांभळे त्यावर आयुर्वेदिक उपचार आहे )
वो बरगद जिसके पेड़ों से महक आती थी फूलों की,
उसी बरगद में एक हरियल का जोड़ा छोड़ आए हैं ।
अभी तक बारिशो में भीगते ही याद आता है,
के छप्पर के नीचे अपना छाता छोड़ आए हैं ।
हमारी खुदगर्जी आज तक हम को रुलाती है ,
बेटे साथ ले आये लेकिन भतिजे छोड आये है !
भतीजी अब सलीके से दुपट्टा ओढ़ती होगी,
वही झूले में हम जिसको हुमड़ता छोड़ आए हैं ।
ये हिजरत तो नहीं थी बुजदिली शायद हमारी थी,
के हम बिस्तर में एक हड्डी का ढाचा छोड़ आए हैं । ( म्हातारी -रा )
हमारी अहलिया तो आ गयी माँ छुट गए आखिर, ( अहलिया = बायको )
के हम पीतल उठा लाये हैं सोना छोड़ आए हैं ।
महीनो तक तो अम्मी ख्वाब में भी बुदबुदाती थीं,
सुखाने के लिए छत पर पुदीना छोड़ आए हैं ।
वजारत भी हमारे वास्ते कम मर्तबा होगी, ( वजारत = प्रधान दर्जा )
हम अपनी माँ के हाथों में निवाला छोड़ आए हैं ।
यहाँ आते हुए हर कीमती सामान ले आए,
मगर इकबाल का लिखा तराना छोड़ आए हैं । ( सारे जहा से अच्छा... )
हिमालय से निकलती हर नदी आवाज़ देती थी,
मियां आओ वजू कर लो ये जूमला छोड़ आए हैं । ( जूमला = वाक्य )
वजू करने को जब भी बैठते हैं याद आता है,
के हम जल्दी में जमुना का किनारा छोड़ आए हैं ।
उतार आये मुरव्वत और रवादारी का हर चोला, ( रवादारी = धकवने )
जो एक साधू ने पहनाई थी माला छोड़ आए हैं ।
जनाबे मीर का दीवान तो हम साथ ले आये,
मगर हम मीर के माथे का कश्का छोड़ आए हैं ।
उधर का कोई मिल जाए इधर तो हम यही पूछें,
हम आँखे छोड़ आये हैं के चश्मा छोड़ आए हैं ।
हमारी रिश्तेदारी तो नहीं थी हाँ ताल्लुक था,
जो लक्ष्मी छोड़ आये हैं जो दुर्गा छोड़ आए हैं ।
कल एक अमरुद वाले से ये कहना गया हमको,
जहां से आये हैं हम इसकी बगिया छोड़ आए हैं ।
वो हैरत से हमे तकता रहा कुछ देर फिर बोला,
वो संगम का इलाका छुट गया या छोड़ आए हैं।
अभी हम सोच में गूम थे के उससे क्या कहा जाए,
हमारे आन्सुयों ने राज खोला छोड़ आए हैं ।
मुहर्रम में हमारा लखनऊ इरान लगता था,
मदद मौला हुसैनाबाद रोता छोड़ आए हैं !
महल से दूर बरगद के तलए मवान के खातिर,
थके हारे हुए गौतम को बैठा छोड़ आए हैं ।
तसल्ली को कोई कागज़ भी चिपका नहीं पाए,
चरागे दिल का शीशा यूँ ही चटखा छोड़ आए हैं ।
सड़क भी शेरशाही आ गयी तकसीम के जद मैं,
तुझे करके हिन्दुस्तान छोटा छोड़ आए हैं ।
हसीं आती है अपनी अदाकारी पर खुद हमको,
बने फिरते हैं युसूफ और जुलेखा छोड़ आए हैं ।
गुजरते वक़्त बाज़ारों में अब भी याद आता है,
किसी को उसके कमरे में संवरता छोड़ आए हैं ।
हमारा रास्ता तकते हुए पथरा गयी होंगी,
वो आँखे जिनको हम खिड़की पे रखा छोड़ आए हैं ।
तू हमसे चाँद इतनी बेरुखी से बात करता है
हम अपनी झील में एक चाँद उतरा छोड़ आए हैं ।
ये दो कमरों का घर और ये सुलगती जिंदगी अपनी,
वहां इतना बड़ा नौकर का कमरा छोड़ आए हैं ।
हमे मरने से पहले सबको ये ताकीत करना है ,
किसी को मत बता देना की क्या-क्या छोड़ आए हैं ।
मुनव्वर राणा
प्रतिक्रिया
4 Oct 2012 - 12:14 am | प्रास
बाकी मुनव्वर राणांच्या शब्दांबद्दल काय बोलावं, त्यांच्यातून फाळणीचं नि त्यातून काय गमावलंय त्याबद्दलचं दु:ख व्यवस्थित व्यक्त होतंय.
4 Oct 2012 - 11:08 am | निश
अश्फाक साहेब, तुम्हाला लाख लाख धन्यवाद मुनव्वर राणा ह्यांच्या गझलेचे शेर इथे दिल्याबद्दल.
खुप सुंदर पण तितकीच मन सुन्न करणारी गझल आहे.
अजुन येउ द्यात.
जर गुलजार साहेबांची मेहमान ही गझल मिळाली तर खरच ईथे प्रकाशित कराल का?
परत एकदा लाख लाख धन्यवाद तुम्हाला.
4 Oct 2012 - 1:29 pm | यकु
वेदांच्या ऋचांचा हा उर्दूतील भावानुवाद आहे.
साहित्य म्हणून मनोरंजनासाठी याचं मूल्य आहेच, पण यात सृष्टीनिर्माता आहे आणि तो एकच आहे हे स्वतः सृष्टीनिर्मात्यानं या शायरामार्फत वदवून घेतलंय.
आपण स्वतः पूर्णब्रह्म आहोत हे जो जाणत नाही त्याला हे फक्त साहित्य म्हणूनच वाचता येईल.
नाज़ खियालवी म्हणतात ना -
कभी यहाँ तुम्हें ढूँढा, कभी वहाँ पहुँचा,
तुम्हारी दीद की खातिर कहाँ कहाँ पहुँचा,
ग़रीब मिट गये, पा-माल हो गये लेकिन,
किसी तलक ना तेरा आज तक निशाँ पहुँचा
हे आपण पूर्णब्रह्म आहोत हे न जाणणार्याने म्हटलंय असं म्हणता येईल ( असं नाही, तरी पण उपमेसाठी म्हणून)
आता ज्याला ईश्वराची सृष्टीनिर्मिती मान्य नाही त्याला ईश्वर काय म्हणतोय ते पहा -
उधर का कोई मिल जाए इधर तो हम यही पूछें,
हम आँखे छोड़ आये हैं के चश्मा छोड़ आए हैं ।
थोडक्यात, बेट्या म्हातारे झालो आम्ही सगळे पैगंबर, अवतार आणि बुद्ध या सृष्टीचं वर्णन करुन. हे तुला ज्यातून दिसतंय ते आमचे डोळे आहेत की चष्मा आहे?
डिव्हाईन !
4 Oct 2012 - 2:08 pm | निश
यकु साहेब, जियो. अप्रतिम भावानुवाद दिला आहेत नाज़ खियालवीयांचा.
अजुन येऊ द्यात.
4 Oct 2012 - 2:11 pm | निश
असही म्हणावस वाटत की...
तरक्कीकी राह मे कुछ इस तरह आगे निकल गये.
सब मंझिलेतो मिली मगर अपने बिछड गये.
6 Oct 2012 - 11:57 pm | राही
के हम बिस्तरमें एक हड्डी का ढाँचा छोड आये हैं...
सर्र्कन काटा आला अंगावर.
के हम मिट्टी के खातिर अपना सोना छोड आये हैं हेही तसंच.
पण कुठेतरी,कधीतरी,'छूट गया कि छोड आये हैं?' या प्रश्नाला अश्रूंद्वारे का होईना,'छोड आये हैं' हेच उत्तर द्यावं लागतं कारण निवड आपलीच असते.केक एकच असेल तर एक तर तो खाता येईल नाही तर जवळ बाळगता येईल.स्वतंत्र भूमीची,भविष्याची स्वप्ने पाहिली असतील तर ती प्रत्यक्षात आणण्यासाठी 'चैन आणि सुकून' देणारी सुखनिद्रा विसरून प्रखर वास्तवाच्या उन्हात जागे होणे क्रमप्राप्त असते.स्वप्न ही निद्रेतली जागृतावस्था हे जाणले की मग ही कविता केवळ स्मरणविकलता हेच मूल्य मागे ठेवते,आणखी काही नाही.मुनव्वर राणांप्रती प्रचंद आदर आहे, तरीही.
14 Jan 2016 - 7:47 pm | होबासराव
वाह वाह !! अश्फाक मिया हम आपके शुक्रगुजार है ये जो राणा साहब कि बेहतरीन नज्म आपने यहा पर देने कि जहमत उठायी है उसके लिये
कहानी का ये हिस्सा आजतक सब से छुपाया है !
कि हम मिट्टी की ख़ातिर अपना सोना छोड़ आए हैं!!
नई दुनिया बसा लेने की इक कमज़ोर चाहत में !
पुराने घर की दहलीज़ों को सूना छोड़ आए हैं !!
14 Jan 2016 - 8:23 pm | मारवा
मित्रा
मला फाळणी चा काही संबंध नाही आला
मात्र हात सोडवुन जाण्याच्या गाव सोडण्याच्या आठवणी खुप आहेत माझ्याकडेही.
आज खरच डोळे पाणावले मित्रा ही गझल माहीत नव्हती विशेषतः हा शेर तर
तू हमसे चाँद इतनी बेरुखी से बात करता है
हम अपनी झील में एक चाँद उतरा छोड़ आए हैं ।
एक ते जुन गाण आहे हिन्दी
ये गलीयॉ ये चौबारा यहॉ आना ना दोबारा
अब हम तो भए परदेसी
के तेरा यहॉ कोइ नही
हम तो भए पर्यंत ओळ गेली की मला रडु कोसळत नेहमीच
ले जा रँग-बिरंगी यादें, हँसने रोने की बुनियादें इथपर्यंत जास्तीत जास्त जाऊ शकतो मी मोठ्या मुश्कीलीने बास
मग मी ते गाण बंदच करुन टाकतो
आज खरच तस वाटल
खर आज मुड वेगळा होता तसा.
अवघडच आहे बाबा आजचा दिवस
15 Jan 2016 - 7:11 am | प्राची अश्विनी
क्या बात! गाव सोडून शहरी आलेल्यांना सुद्धा हेच वाटत असते.
15 Jan 2016 - 9:29 am | पगला गजोधर
क्या बात!