अरूप उमजोनी जाय,
दाविते पंथ गुरुमाय,
अज्ञान विलया जाय,
तत्काले...
जन्मोजन्मीच्या ग्रंथी,
पाडिती जीवा गुंथी,
गुरुस्पर्शे निघे पंथी,
मुक्तीचिया...
सर्व स्थळी सर्व देही,
एकतत्व निश्चये पाही,
नित्यानुसंधानी राही,
आत्ममग्न...
फिटता भ्रमजाल,
जेथे तेथे पाहाल,
एकत्व अनुभवाल,
चित्शक्तीचे...
- सागरलहरी -
२३.११.२०१३
प्रतिक्रिया
23 Nov 2013 - 9:42 am | जेनी...
छान , प्रसन्न काव्य .
आवडलं
23 Nov 2013 - 10:21 am | सस्नेह
+१
23 Nov 2013 - 10:32 am | यशोधरा
सुरेख.
सुंदर..
23 Nov 2013 - 1:11 pm | प्यारे१
छानच!
(ग्रंथी म्हणजे गाठी ना?)
24 Nov 2013 - 10:46 am | सागरलहरी
होय ग्रन्थी = गाठ
23 Nov 2013 - 11:44 am | अमेय६३७७
सुरेख
23 Nov 2013 - 1:18 pm | अत्रुप्त आत्मा
खूप छान!
23 Nov 2013 - 5:00 pm | वेल्लाभट
छान.....
24 Nov 2013 - 9:37 am | मदनबाण
छम्न. :)
26 Nov 2013 - 11:05 am | सागरलहरी
आपणा सर्वाना मनापासुन धन्यवाद
26 Nov 2013 - 12:40 pm | मिसळलेला काव्यप्रेमी
अतिशय सुंदर __/\__!!
26 Nov 2013 - 7:38 pm | आतिवास
सुरेख!