श्रीसमर्थकृत - अन्तर्भाव
जय जय रघुवीर समर्थ !
प्रस्तावना :
( माघकृष्ण नवमी , गुरुवार मार्च ३, २०१६)
सर्व साधकांना दासनवमीनिमित्त सादर प्रणाम!
सज्जनगडावरील दासनवमी निमित्तची विशेष पुजा
श्रीसमर्थलिखित आरत्या महाराष्ट्रातातील जनमानसात आजही जागा टिकवुन आहेत. समर्थलिखित मनाचे श्लोक आणि श्रीमद दासबोध हे सुप्रसिध्द ग्रंथ सर्वांस ज्ञात आहेतच. करुणरसाने ओतप्रोत भरलेली करुणाष्टके आजही कोण्याही साधकाला गहिवरुन टाकतात. श्रीआत्माराम तर समर्थ संप्रदायाचा कळसच ! केवळ अनुर्वाच्य आनंद !
पण ह्याही पलीकडे जाऊन समर्थांनी अफाट लेखन केले आहे. समर्थांच्या अभंगांची स्वतंत्र गाथाच आहे, सोलीव सुख हे प्रकरण तर सर्व राजयोगातील अनुभवांचे सार आहे. जुनाटपुरुष , पुर्वारंभ , सगुणध्यान, निर्गुणध्या, मानसपुजा ... किति म्हणुन नावे घावीत ! ह्यातील बहुतांश साहित्य आज अंतरजालावर आपणास उपलब्ध आहे.
http://www.dasbodh.com/
http://www.samarthramdas400.in/mar/home.php
मात्र मला आवडलेले समर्थांचे अन्तर्भाव हे एक छोटेखानी प्रकरण मला येथे सापडले नाही. अतिषय सुंदर आणि खुपच सोप्प्या भाषेत आर्य सनातन वैदिक धर्माच्या अद्वैत तत्वज्ञानाची ओळख करुन देणारा आणि विशेष करुन ते आचरणात कसे आणायचे ह्या गहनप्रश्णाचे अत्यंत सोप्पे असे उत्तर देणारा हा छोटासा ग्रंथ ह्या येथे उधृत करीत आहे.
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|| अन्तर्भाव ||
|| श्रीराम ||
समास पहिला
जय जयाजी सद्गुरु समर्था | जय जयाजी पुर्णमनोरथा |
चरणी ठेऊनिया माथां | प्रार्थितसे || श्रीराम ||
एक मी संसारी गुंतला | स्वामी पदी वियोग जाला |
तेणे गुणे आळ आला | मज मी पणाचा || श्रीराम ||
इच्छाबंधनी गुंतलो | तेणे गुणे अंतरलो |
आता येथुनि सोडविलो | पाहिजे दातारे || श्रीराम ||
प्रपंच संसार उद्वेगे | क्षणक्षणा मानस भंगे |
कुळाभिमान म्हणे उगे | समाधानासी || श्रीराम ||
तेणे समाधान चळे | विवेक उडोनिया पळे|
बळेचि वृत्ती ढासळे | संग दोषे|| श्रीराम ||
स्वामी प्रपंचाचेनि गुणे | परमार्थासी आले उणे|
ईश्वर आज्ञेप्रमाणे | क्रिया न घडे || श्रीराम ||
याच्या दु:खे झोकां आदळे चित्ती| समाधान राखणे किती |
विक्षेप होता चित्तो वृत्ती | दंडळु लागे || श्रीराम ||
प्रपंचे केले कासावीस | घेवु नेदी उमस |
तेणे उपजे त्रास | सर्वत्रांचा || श्रीराम ||
आता असो हा संसार | जाले दु:खांचे डोंगर |
स्वामी अंतर्साक्ष विचार | सर्वहि जाणति | श्रीराम |||
तरी आता काय जी करावे |कोण्या समाधाने असावे |
हे मज दातारे सांगावे | कृपा करोनि || श्रीराम ||
ऐसी शिष्याची करुणा | ऐकोनि बोले गुरुराणा |
केली पाहिजे विचारणा | पुढीलिये समासी || श्रीराम ||
इति श्री अंतर्भाव | जन्म मृत्यु समुळवाव |
रामदासी गुरुराव | प्रसन्न जाला || श्रीराम ||
समास पहिला
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समास दुसरा
|| श्रीराम ||
ऐक शिष्या सावध | सिध्द असता निजबोध |
माईक हा देहसमंध | तुज बाधी || श्रीराम ||
बध्दके कर्मे केली | ते पाहिजेत भोगिल|
देहबुध्दी दृढ झाली| म्हणोनिया || श्रीराम ||
मागे जे जे संचित केले |ते ते पाहिजे भोगिली |
शुद्रे सेत जरी टाकिले | तरी बाकी सुटेना || श्रीराम ||
हा तो देहबुधीचा भाव | सस्वरुपी समळवाव |
परंतु प्राप्तीचा उपाव | सुचला पाहिजे || श्रीराम ||
सस्वरुप लंकापुरी |हेमइटा दुरीच्या दुरी |
देहबुधीच्या सागरी| तरले पाहिजे || श्रीराम ||
विषयमोळ्या वाहो सांडी| मग त्यास कोण म्हणे काबाड||
तसी पदार्थाची गोडी | सांडता आत्मा || श्रीराम ||
देहबुधीचे लक्षण| दिसेंदीस होता शीण|
तदुपरी बाणे खुण | आत्मयाची || श्रीराम ||
सर्व आत्मा ऐसे बोलता | अंगी बाणेना सर्वार्था |
साधनेविण ज्ञान वार्ता | बोलोचि नये || श्रीराम ||
दसर्याचे सोने वाटले | तेणे काय हातासि आले |
किं रायविनोदे आणले | सुखासन || श्रीराम ||
तसे शब्दी ब्रह्मज्ञान | बोलता नव्हे समाधान |
म्हणोनिया आधी साधन | केले पाहिजे || श्रीराम ||
शब्दी जेविता तृप्ती जाली | हे तो वार्ता नाही ऐकिली |
पाक निष्पत्ती पाहिजे केली | साक्षेपे स्वये || श्रीराम ||
काहीतरी येक कारण | कैसे घडे प्रेत्नेविण |
मां हे ब्रह्मज्ञान परमकठीण | साधनेविण केवी || श्रीराम ||
शिष्य म्हणे जी सद्गुरु | साधनतरी काय करु |
जेणे पाविजे पारु | महादु:खाचा || श्रीराम ||
आता पुढीलिये समासी | स्वामी सांगती साधनासी |
सावध श्रोता कथेसी | अवधान द्यावे || श्रीराम ||
इति श्री अंतर्भाव | जन्ममृत्य समुळ वाव |
रामदासी गुरुराव | प्रसन्न जाला || श्रीराम ||
समास दुसरा
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समास तिसरा
|| श्रीराम ||
प्राप्त जाले ब्रह्मज्ञान | आंगी बाणले पाहिजे |
पुर्ण म्हणोनि हे निरुपण | सावध ऐका || श्रीराम ||
काही च नेणे तो बध्द | समुळ क्रिया अबध्द |
भाव उठिला तो शुध्द | मुमुक्षु जाणावा || श्रीराम ||
कर्म त्यजुन बाधक | शुध्द वर्ते तो साधक |
क्रिया पालटे विवेक | निचनवा || श्रीराम ||
तये क्रियेचे लक्षण | आधी स्वधर्मरक्षण |
पुढे अद्वैत श्रवण | केले पाहिजे || श्रीराम ||
नित्य नेम दृढ चित्ति | तेणे शुध्द चित्तोवृत्ती |
होवुनिया भगवंती | मार्ग फुटे || श्रीराम ||
नित्य नेमे भ्रांति फिटे | नित्य नेमे संदेह तुटे |
नित्यनेमे लिगटे | समाधान अंगी || श्रीराम ||
नित्यनेमे अंतर शुध्द | नित्यनेमे वाढे बोध |
नित्यनेमे बहुखेद | प्रपंच नुठी || श्रीराम ||
नित्यनेमे सत्व चढे | नित्यनेमे शांति वाढे |
नित्यनेमे मोडे | देहबुध्दी || श्रीराम ||
नित्यनेमे दृढ भाव | नित्यनेमे भेटे देव |
नित्यनेमे पुसेठाव | अविद्येचा || श्रीराम ||
नित्यनेम करु कोण | ऐसा शिष्ये केला प्रश्ण |
केले पाहिजे श्रवण | प्रत्यई स्वये || श्रीराम ||
मानस पुजा जपध्यान | येकाग्र करोनिया मन |
त्रिकाळ घ्यावे दर्शन | मारुती सुर्याचे || श्रीराम ||
हरिकथा निरुपण | प्रत्यई करावे श्रवण |
निरुपणी उणखुण | केली पाहिजे || श्रीराम ||
संकटी श्रवण न घडे | बळात्कारे अंतरपडे |
तरी अंतरर्स्थिती मोडे | ऐसे न किजे || श्रीराम ||
अंतरी पांच नामे | म्हणत जावीत नित्यनेमे |
ऐसे वर्तता भ्रमे | बाधीजेना || श्रीराम ||
ऐसी साधकाची स्थिती | साधके रहावे ऐसिये रीती |
साधने विण ज्ञानप्राप्ती | होणार नाही || श्रीराम ||
तव शिष्य म्हणे जी ताता | जन्म गेला साधन करता |
कोणे वेळे आता | पावो समाधान || श्रीराम ||
कैसे येईल सिध्दपण | केव्हा तुटेल साधन |
मुक्त दशा सुलक्षण | मज प्राप्त केवी || श्रीराम ||
आता याचे प्रत्योत्तर | श्रोती व्हावे सादर |
ऐका पुढे विस्तार | सांगिजेल || श्रीराम ||
इति श्री अंतर्भाव | जन्ममृत्य समुळ वाव |
रामदासी गुरुराव | प्रसन्न जाला || श्रीराम ||
समास तिसरा
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समास चवथा
|| श्रीराम ||
सिध्द होवोनि बैसला | दृष्टी नाणी साधनाला |
सादर अशनशयनाला | अत्यादरे करुनी || श्रीराम ||
ऐसा जो विषयासक्त | अत्यंत विषयी आसकत |
सिध्द्पणे आपुला घात | तेणे केला || श्रीराम ||
जो सिध्दांचा मस्तकमणी | माहांतापसी शूळपाणी |
तोहि आसकत श्रवणी | जपध्यान पूजेसी || श्रीराम ||
अखंड वाचे रामनाम | अनुष्टाता परम |
ज्ञानवैराग्य संपन्न | सामर्थ्यसिधु || श्रीराम ||
तोहि म्हणे मी साधक | तेथे मानव बापुडे रंक |
सिध्दपणाचे कौतुक | केवी घडे || श्रीराम ||
म्हणोनि साधनेसी जो सिध्द | तो चि ज्ञाता परमशुध्द |
येर ते जाणावे अबध्द | अप्रमाण || श्रीराम ||
साधनेविण बाष्कळता | ते चि जाणावी बध्दता |
तेणे घडे अनर्गळता | आसक्ती रुपे || श्रीराम ||
मन सुखावले जिकडे | आंग टाकिले तिकडे |
साधन उपाय नावडे | अंतरापासुनी || श्रीराम ||
चित्ती विषयांची आस | साधन म्हणता उपजे |
त्रास धरतां कासावीस | परम वाटे || श्रीराम ||
दृढ देहाचि आसकती | तेथे कैची पां विरक्ती |
विरक्तीविण भक्ती | केवी घडे || श्रीराम ||
ऐक गा शिष्य टिळका | नेम नाही ज्या साधका |
तयासी अंती धोका | नेमस्त आहे || श्रीराम ||
तव शिष्ये केली विनंती | अंती मती तेचि गती |
ऐसे सर्वत्र बोलती | तरी मी काय करु || श्रीराम ||
अंती कोण अनुसंधान | कोठे ठेवावे हे मन |
कैसे राहे समाधान | तये समई || श्रीराम ||
अंत समयो येईल कैसा | हा तो न कळे भर्वसा |
प्राप्त होईल कोण दशा | हे तो श्रुत नाही || श्रीराम ||
ऐसी आशंका घेतली मने | शिष्य बोले करुण वचने |
याचे उत्तर श्रोते जने | सावध परिसावे || श्रीराम ||
इति श्री अंतर्भाव | जन्ममृत्य समुळ वाव |
रामदासी गुरुराव | प्रसन्न जाला || श्रीराम ||
समास चवथा
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समास पाचवा
|| श्रीराम ||
ऐक शिष्या सावधान | येकाग्र करोनिया मन |
तुवां पुसिले अनुसंधान | अंत समईंचे || श्रीराम ||
तरी अंत कोणास आला | कोण मृत्याते पावला |
हां तुवा विचार केला | पाहिजे आता || श्रीराम ||
अंत आत्मयाच्या माथा | हे तो न घडे सर्वथा |
सस्वरुपी मरणाची वार्ता | बोलों चि नये || श्रीराम ||
स्वरुपी तों अंत नाही | येथे पाहणे न लगें काही |
मृगजळाच्या डोहो | बुडोचि नको || श्रीराम ||
आता मृत्य देहास घडे | तरी ते अचेतन बापुडे |
शवास मृत्य न घडे | कदा कल्पांती || श्रीराम ||
आता मृत्य कोठे आहे | बरें शोधोनि पाहे |
शिष्य विस्मीत होवोनि राही | क्षण येक निवांत || श्रीराम ||
मग पाहे स्वामींकडे | म्हणे हा देह कैसा पडे |
चालविता कोणीकडे | निघोनि गेला || श्रीराम ||
देह चालवतो कोण | हे मज सांगावी खुण |
येरु म्हणे हा प्राण | पंचकरुप || श्रीराम ||
प्राणास कोणाची सत्ता | येरु म्हणे स्वरुपसत्ता |
सत्ता रुपे तत्वता | माया जाण || श्रीराम ||
मायेची मायिक स्थिती | ऐसे सर्वत्र बोलती |
माया पाहता आदी अंती | कोठेचि नाही || श्रीराम ||
अज्ञानासी भ्रांती आली | तेणे दृष्टी तरळली |
तेणे गुणे आडळली | नस्तीच माया || श्रीराम ||
शिष्या होई सावचित | मायेचा जो शुध्द प्रांत |
तो चौदेहांचा अंत | सद्गुरुबोधे || श्रीराम ||
चत्वार देहाच्या अंती | उरली शुध्द स्वरुपस्थिती |
तेणे गुणे तुझी प्राप्ती | तुज चि जाली || श्रीराम ||
जन्मलाचि नाही अनंत | तयासी कैचा येईल अंत |
आदी अंती निवांत | तो चि तु अवघा || श्रीराम ||
स्वामी म्हणती शिष्यासी | आता संदेह धरसी |
तरी श्रीमुखावरी खासी | निश्चयेसी || श्रीराम ||
देह बुधीचेनि बळे | शुध्द ज्ञान ते झाकोळे |
भ्रांती हृदयी प्रबळे | संदेह रुपे || श्रीराम ||
म्हणोनि देहातीत जे सुख | त्याचा करावा विवेक |
तेणे गुणे अविवेक | बाधु शकेना || श्रीराम ||
तुटले संशयाचे मुळ | फिटले भ्रांतीचे पडळ |
तयास अंत केवळ | मुर्खपणे भ्रांती || श्रीराम ||
जे जन्मलेचि नाही | तयासी मृत्य चिंतसी काही |
मृगजळाच्या डोही | बुडोचि नको || श्रीराम ||
मनाचा करुनि जयो | याचा करावा निश्चयो |
दृढ निश्चये अंत समयो | होवुनि गेला || श्रीराम ||
आदी करुनि देहबुध्दी | देह टाकिला प्रारब्धी |
आपण देहाचा समंधी | मुळीच नाही || श्रीराम ||
अस्ते करुनि वाव | नस्त्याचा पुसोनि ठाव |
दोहोतीत अंतर्भाव | अस्तेखुणेने असावे || श्रीराम ||
हे समाधान उत्तम | अस्तेपणाचे जे वर्म |
देहबुधीचे कर्म | तुटे जेणे || श्रीराम ||
आता तुटली आशंका | मार्ग फुटला विवेका |
अद्वैतबोधे रंका | राज्यपद || श्रीराम ||
तव शिष्ये आक्षेपिले | आतां स्वामी दृढ जाले |
तरी हे ऐसेचि बाणले | पाहिजे की || श्रीराम ||
निरुपणी वृत्ती गळे | शुध्द ज्ञान प्रबळे |
उठोनि जाता सवेचि मावळे | वृत्ती मागुती || श्रीराम ||
सांगा यासी काय करु |मज सर्वथा न धरे धीरु |
ऐका सावध विचारु | पुढीलिये समासीं || श्रीराम ||
इति श्री अंतर्भाव | जन्ममृत्य समुळ वाव |
रामदासी गुरुराव | प्रसन्न जाला || श्रीराम ||
समास पांचवा
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समास सहावा
|| श्रीराम ||
शिष्या परम गुह्यज्ञान | जेणे घडे समाधान |
ऐसे मागे निवेदन | तुज केले || श्रीराम ||
ते चिं निरुपण पाहतां | अभ्यंतरी क्लृप्त होता |
आशंकेसी सर्वथा | उरी नाहीं || श्रीराम ||
आता असो प्रस्तुत | देहास मांडला अंत |
तेव्हा साधके निवांत | काय धरावें || श्रीराम ||
निरावलंबी चित्त न्यावे | तरी ते राहेना स्वभावे |
आणि ऐक्याच्या नावे | शुन्य जाले || श्रीराम ||
निरावलंबीचे साधन | देह असतां सावधान |
केले पाहिजे समाधान | सतसंगे विवेके || श्रीराम ||
अनुसंधान अंतकाळी | कैसे राहेल ते निर्मळी |
अनुसंधानमिसे जवळी | मीपण उठे || श्रीराम ||
एवं स्वरुपानुसंधान | अंतकाळी न घडे जाण |
आता करावे ध्यान | सगुण मुर्तीचे || श्रीराम ||
ध्यानासी कारण चित्त | ते चित्त होय दुश्चीत |
कैसे घडे सावचित | ध्यानअंती || श्रीराम ||
आता करावे राम चिंतन | तरी वासना करी प्रपंच ध्यान |
प्रपंची गुंतले मन | ते सुटले पाहिजे || श्रीराम ||
पडोनी कूपाभीतरी | प्राणी नाना विचार करी |
परी ते न घडे जववरीं | बाहेरी न ये || श्रीराम ||
तैसे मन हे गुंतले | वासना विषयीं नेले |
वरि वरि नाम स्मरिले | त्याचे कोण काज || श्रीराम ||
तरी आतां काय जी करावे | कोण्या उपाये तरावे |
तें चि आता स्वभावे | सांगिजेल || श्रीराम ||
दीनदयाळ गुरुराव | पुर्वीच सुचविला उपाव |
अंती चळे अंतर्भाव | म्हणोनिया || श्रीराम ||
तरी त्या उपायाची खुण | केली पाहिजे श्रवण |
उपाव रचिला कोण | सद्गुरुनाथे || श्रीराम ||
ऐका उपायाचे वर्म | दॄढ लाविला नित्यनेम |
हाचि उपाय परम | अंतसमयीं || श्रीराम ||
पुर्वी पडिला जो अभ्यास | तो चि अंती निजध्यास |
म्हणोनिया सावकास | नित्यनेम करावा || श्रीराम ||
जयास ठाईची सवे | तयास नलगे सांगावे |
म्हणोनिया नेत्यनेम जीवे | विसंबु नयें || श्रीराम ||
नित्यनेम पुर्वी कथिला | पुन्हा पाहिजे सांगितला |
जो मागे निरोपिला | तोचि आता || श्रीराम ||
येकाग्र करोनिया मन | अंतरी करावे ध्यान |
सर्वसांग पुजा विधान | प्रत्यही करावें || श्रीराम ||
नित्य नेमिला जो जप | त्रिकाळ दर्शनी साक्षेप |
आदित्यमारुतीचे रुप | अवलोकावे || श्रीराम ||
हरिकथा निरुपण | प्रत्यही करावे श्रवण |
हे चि जाणावी खुण | नित्य नेमाची || श्रीराम ||
अशक्त होवोनि प्राणी पडे | तेव्हा नित्यनेम न घडे |
तेणे बळेचि नेमाकडे | चित्त न्यावे || श्रीराम ||
नित्य नेमाचा अभ्यास | नेम चुकता कासावीस |
तोचि लागे निजध्यास | अंतसमयीं || श्रीराम ||
आहां देवा जप राहिला | मारुती नाही देखिला |
प्राणी योगभ्रष्ट जाला | निजध्यासे || श्रीराम ||
ऐसे नित्य नेम कैवाडे | मन लागले देवाकडे |
अंतकाळी बळेचि घडे | निजध्यास || श्रीराम ||
वाचा खुंटता अंतर पडे | म्हणोनि अंतरीच जप घडे |
स्वामी आधीच साकडे | फेडीत गेले || श्रीराम ||
जे वाल्मिकासी आधार | जे शतकोटीचे सार |
उमेसहित शंकर | जपे जया || श्रीराम ||
जेणे धन्य कासीपुरी | प्राणीमात्रांसी उध्दरी |
अंतःकाळी पृथीवरी | उच्चार ज्याचा || श्रीराम ||
तेचि अंतरी धरावे | तेणेचि संकटी तरावे |
कैळासनाथे सदाशिवे | उपाव केला || श्रीराम ||
इति श्री अंतर्भाव | जन्ममृत्य समुळ वाव |
रामदासी गुरुराव | प्रसन्न जाला || श्रीराम ||
समास सहावा
जय जय रघुवीर समर्थ
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तळटीप :
१)सदर ग्रंथ अंतर्जालावर शोधुनही मला सापडले नाही. १९८८ साली प्रकाशित झालेल्या "श्री समर्थ रामदासकृत अकरा लघुकाव्ये " ह्या एका जुन्या पुस्तकातुन मला हे प्रकरण वाचावयास मिळाले. मुळसाहित्य जवळपास ३५० वर्षांपुर्वीचे असल्याने कोणाच्याही कोणत्याही कॉपीराइटचा भंग होत नसावा असा एक अंदाज आहे.
२) समर्थ समाधीचे आणि श्रीराममुर्तींचे फोटो व्हॉट्सअॅप्प वरुन मिळालेले आहेत. असे फोटो काढायची परवानगी नसताना ते कोणी काढले , त्यावरील कॉपीराईट कोणाचा वगैरे मला माहीत नाही. हे फोटो इथे देण्याच्या उद्देश केवळ समर्थभक्तांना दर्शनाचा लाभ व्हावा इतकाच आहे.
|| जय जय रघुवीर समर्थ||
|| इति श्रीरामचंद्रार्पणमस्तु ||
प्रतिक्रिया
5 Mar 2016 - 6:56 pm | यशोधरा
धन्यवाद, वाखु साठवली आहे.
5 Mar 2016 - 7:06 pm | अभ्या..
धन्यवाद प्रगो.
5 Mar 2016 - 7:22 pm | माहितगार
१) छायाचित्र काढण्याची परवानगी असणे नसणे हे वेगळे कायदे आणि नियमांनी गठीत होते त्याचा कॉपीराइटशी संबंध नाही.
२) पब्लिक अॅक्सेस (मालकी खासगी असलीतरीही) असलेल्या कायमस्वरुपी कलाकृतींच्या छायाचित्रणास (ज्यात मुर्तीही याव्यात) कॉपिराईट कायद्यात अपवाद होत असावा पण विशीष्ट पद्धतीचा विशेष पोषाख, विशेष दागिने, विशेष पुष्परचना याबद्दल संबंधीत कलाकाराने कॉपीराईट दावा केला तर काय ? हा प्रश्न अद्यापी न्यायालयांनी हाताळला असल्यास कल्पना नाही न्यायालयांनी एवढे डिटेलमध्ये बहुधा अद्यापी केस हाताळली नसण्याची शक्यता बरीच आहे. म्हणजे त्या छायाचित्रकाराकडून पोषाख आणि पुष्परचनेवरचा कॉपीराईट उल्लंघन झाले असेल का हे सांगणे तुर्तास तरी कठीण असावे.
३) इन एनी केस जे छायाचित्र काढले गेले ते काढले गेले- (काढण्याची परवानगीचे नियम कायदे वेगळे त्यांचा इथे कॉपीराईटशी संबंढ नसावा) -त्यावरचा कॉपीराइट फोटो क्लिकरणार्याचा, कॉपीराईट कायद्यात केवळ ....भक्तांना दर्शनाचा लाभ व्हावा इतकाच अशा प्रकारचा अपवाद नसावा म्हणुन प्रथमदर्शनी कॉपीराईटचे उल्लंघन होत असण्याची शक्यता नाकारताही येत नाही.
४) १९८८ साली प्रकाशित झालेल्या "श्री समर्थ रामदासकृत अकरा लघुकाव्ये " ह्या कॉपीराइट कायद्याच्या दृष्टीने यास जुने म्हणण्यात पॉईंट नाही.-कॉपीराईट लेखकाचे आयुष्य +६० वर्षे - पण समजा संग्रहक आणि/अथवा प्रकाशकाने मूळ मोडी लिपीतून देवनागरीत आणले अथवा आधीच्या काळातील शुद्धलेखन बदलून नव्या काळानुरुप शुद्धलेखन बदलले तरी त्यावर त्यांचा कॉपीराईट चालू होणे अभिप्रेत असावे, पण अशा स्वरुपाचे मजकुरात त्यांनी बदल न करता कॉपीराईट फ्री असलेला मजकुर जसाच्या तसा छापला असेल तर त्या मजकुरावर कॉपीराइट लागू नये.
चुभूदेघे उत्तरदायकत्वास नकार माहितगारकृत लागू
6 Mar 2016 - 1:59 am | पद्मावति
सुरेख लेख! धन्यवाद. वाचनखुण साठविली आहे.
6 Mar 2016 - 8:07 am | प्रचेतस
खूपच सुंदर.
अत्यंत सोप्या भाषेत तरी प्रभावी लिहिणे हे समर्थांचे बलस्थान.
6 Mar 2016 - 10:36 am | भाऊंचे भाऊ
तुम्ही रामायण घडले असे मानत नाही परंतु साक्षात रामाच्या दासांचे लिखाण भावले म्हणता हे आपले सिलेक्टिव अंडरस्टैंडिंग / रिडींग समजायचे काय ?
6 Mar 2016 - 10:53 am | प्रचेतस
नाही.
मी फिक्शनमध्ये रमणारा आहे हे आपणास ठाऊकच आहे ना.
6 Mar 2016 - 11:05 am | भाऊंचे भाऊ
आता प्रत्यक्ष रामदासांनाच(काका न्हवे) फिक्शन ठरवत आहात तर विषयच मिटला.
6 Mar 2016 - 11:52 am | प्रचेतस
हा तर्क आपण कशावरून काढलात.
6 Mar 2016 - 2:31 pm | भाऊंचे भाऊ
तुम्हाला फिक्शन आवडते असे उत्तर आपणच दिल्यामुळे तर्काला जागा आपण ठेवली कुठे ?
6 Mar 2016 - 8:32 am | श्री गावसेना प्रमुख
जय जय रघुवीर समर्थ।
6 Mar 2016 - 10:21 am | viraj thale
जय जय रघुवीर समर्थ
6 Mar 2016 - 10:47 am | सतिश गावडे
जय जय रघुवीर समर्थ
6 Mar 2016 - 10:56 am | जेपी
धन्यवाद..वाखुसा
6 Mar 2016 - 11:19 am | viraj thale
कोण म्हणत अस
6 Mar 2016 - 11:45 am | ज्ञानोबाचे पैजार
अन्तर्भाव बद्दल काही वाचण्यात किंवा ऐकण्यात आले नव्हते. वरवर सगळ्या ओव्या वाचल्या. याचा प्रिंटआउट काढुन शांतपणे वाचतो.
हा खजिना आमच्या साठी उघडा करुन दिल्या बद्दल मन:पूर्वक धन्यवाद.
पैजारबुवा,
6 Mar 2016 - 12:12 pm | अर्धवटराव
पुर्वी कुठेतरी वाचल्याचं स्मरतं हे काव्य.
आता जास्त शंका घेतली तर थोबाडात खाशील, असा काहि अर्थ आहे का या ओवीचा? तसं असल्यास असं अट्टहासाने ज्ञानदान कसं करतील समर्थ ?
6 Mar 2016 - 1:07 pm | कवितानागेश
=))
6 Mar 2016 - 9:38 pm | आनन्दा
कदाचित त्याचा अर्थ तोंडावर पडशील असा असावा.
7 Mar 2016 - 9:10 am | सतिश गावडे
तसं वाटत नाही. "थोबाडात खाशिल" असं ढळढळीत लिहिलंय त्या ओवीत.
7 Mar 2016 - 1:13 am | बॅटमॅन
एक नंबर गिर्जाकाका. वाखू साठवून निवांतपणे वाचीन अता हे सर्व.
7 Mar 2016 - 8:32 am | अजया
वाखु साठवली आहे.निवांत वाचायला हवे.
7 Mar 2016 - 9:35 am | नाखु
वरती सगा यांच्या प्रतिसादाने जितके आश्चर्य वाटले नाही त्यापेक्षा कैकपट मा वल्ली यांच्या धागा उपस्थीतीने वाटले.*
वाखु साठविली आहे . अता निवांत वाचायला हवे (समजून घेण्यास धागा लेखकाला पिडण्यात येईल.)
30 Mar 2016 - 2:23 pm | स्पा
+१
7 Mar 2016 - 10:28 am | Anand More
धन्यवाद … माझी पहिली वाखु साठवली.
30 Mar 2016 - 2:34 pm | वेल्लाभट
नुकताच दासबोध वाचायला घेतल्यामुळे धागा फारच योगायोगाने वाचनात आल्यासारखं वाटलं.
छान!
30 Mar 2016 - 2:48 pm | विटेकर
वेल्लाशेट,
दासबोध वाचायला घेतलाच आहे तर, लगे हात स्वाध्यायपण सोडवायला घ्यावेत अशी विनंती करेन !
www.dasbodhabhyas.org
30 Mar 2016 - 2:50 pm | वेल्लाभट
नक्कीच बघतो
30 Mar 2016 - 2:46 pm | विटेकर
खूप सुन्दर लेख !
आमच्या वेबसाइट ( समर्थ ४००) चा उल्लेख आल्याने आणखी आनन्द वाटला
30 Mar 2016 - 3:25 pm | अभ्या..
ओहो, विटुकाका. खूप दिवसानी.
मस्त. समर्थ ह्या एका उद्देशानेच तुम्ही आणि प्रगो माझे खूप जवळचे आयडी वाटता.
30 Mar 2016 - 3:27 pm | स्पा
ओके
30 Mar 2016 - 5:35 pm | टवाळ कार्टा
आँ...अच्च जालं तल
30 Mar 2016 - 3:08 pm | अद्द्या
धन्यवाद :)
देवावर विश्वास ठेवावा कि न ठेवावा यात कायम अडकलेलो आहे.
तरीही , समर्थांनी लिहिलंय फक्त या कारणासाठी हे शांतपणे बसून वाचून काढेन , वाखू साठवलेली आहे
30 Mar 2016 - 3:16 pm | नाखु
विश्वास ठेव अगर नको ठेऊस
पण त्याच्यावर "विसंबून राहू नकोस्,त्याला जबाबदार धरू नकोस (चांगल्या वाईट गोष्टींनाही ) आणि मुख्य म्हणजे तू मानत नाहीस याची लाजही बाळगू नकोस की माजही बाळगू नकोस इतकीच विनंती.
समक्ष भेटलो असल्याने लिहित आहे अधिक उणे क्षमा कीजे !
30 Mar 2016 - 3:22 pm | अद्द्या
:)
जे काही वाईट घडलंय ते माझ्याच चुकी मुळे घडलंय हे पूर्ण मान्य करतो मी,
चांगली गोष्ट हि याच न्यायाने बघता येईल ,
30 Mar 2016 - 5:12 pm | प्रसाद गोडबोले
प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वशः | अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते || २७ ||
देखैं पुढिलाचें वोझें । जरी आपुला माथां घेईजे ।
तरी सांगैं कां न दटिजे । धनुर्धरा ? ॥ १७७ ॥
तैसीं शुभाशुभें कर्में । जियें निपजती प्रकृतिधर्में ।
तियें मूर्ख मतिभ्रमें । मी कर्ता म्हणे ॥ १७८ ॥
30 Mar 2016 - 7:55 pm | अद्द्या
इस्कटून सांगा
5 Apr 2016 - 5:15 pm | सुमीत भातखंडे
सुंदर हो.
वाखु. साठवतो आणि ही पोच देतो.
जय जय रघुवीर समर्थ.